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भूमि का गिरता स्वास्थ्य, Soil Health Degradation

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प्रकृति का पोषणशास्त्रमृदा और इसका निर्माणभूमि का गिरता स्वास्थ्यभूमि अन्नपूर्णा हैखाद्य चक्र; केशाकर्षक शक्तिचक्रवात; केंचुए - किसान के हलधरसूक्ष्म पर्यावरणजैविक व अजैविक घटक एवं पर्यायवरण के मध्य अन्त:क्रिया

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आज हम सभी अपने स्वास्थ्य को लेकर बहुत चिंतित रहते हैं। लेकिन हम बहुत कम ही भूमि के स्वास्थ्य बारे में सोचने की कोशिश करते हैं यदि भूमि का स्वास्थ्य ठीक रहेगा तो हमारा स्वास्थ्य तो वैसे ही ठीक हो जाएगा, जैसे कि ‘जैसा खाए अन्न, वैसा होवे मन’ अर्थात यदि रसायनों से दूषित भोजन ग्रहण करेंगे तो हमारे मन/शरीर में रसायनों के जैसे ही प्रभाव आएंगे, हम स्वस्थ शरीर की कामना नहीं कर सकते हैं। यदि हम स्वस्थ शरीर रखना चाहते हैं तो हमें अन्न देने वाली भूमि के स्वास्थ्य का भी ध्यान रखना होगा। कुछ ऐसे पहलुओं की ओर ध्यान देना होगा जो भूमि के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं, जो इस प्रकार हैं।

जनसंख्या वृद्धि: लगातार बढ़ती हुई जनसंख्या इस बात की ओर लगातार इशारा कर रही है कि बढ़ती हुई आबादी की खाद्य-आपूर्ति के लिए भूमि की ऊपजाउ शक्ति बढ़ाकर खाद्यान बढ़ाना है। यह उन देशों में और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है जहाँ जनसंख्या घनतत्त्व ज्यादा है और भूमि पोषक तत्त्वों से तनाव मुक्त नहीं है। इन देशों में भूमि की ऊर्वरकता का लगातार दोहन किया जा रहा है। विश्व में केवल 3 प्रतिशत भूमि को ही उपजाऊ श्रेणी में रखा गया है (Katyal et al. 2016)।

वनों की कटाई: मानव की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए लगातार पेड़-पौधों की कटाई से वनों का क्षेत्र कम होता जा रहा है। 1958 से लेकर 2015 तक वनो का क्षेत्र 440 करोड़ हेक्टेयर से घटकर 400 करोड़ हेक्टेयर रह गया है (Katyal et al. 2016)। अर्थात प्रतिवर्ष लगभग 7 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र कम हो रहा है। जब वृक्ष काटे जाते हैं तो भूमण्डलीय CO2 बढ़ती है। यही बढ़ी हुई CO2 6-17 प्रतिशत तक वैश्विक तापमान बढ़ने का कारक है। पृथ्वी पर वनों में पेड़-पौधे भूमि कटाव को रोकते हैं, यही पेड़-पोधे वर्षा कारक है और भूमि की ऊर्वरा शक्ति को बढ़ाने में सहायक होते हैं। जैविक विविधता भी इन्ही वनों के कारण ही दिखयी देती है।

भूमि के उपयोग में बदलाव: खाद्य आपूर्ति को पूरा करने के लिए पारिस्थितिक वनीय सुरक्षित भूमि को फसली क्षेत्र में स्थानांतरित करने के उद्देश्य से वनों को काटने या जलाने से भूमि के स्वास्थ्य या जलवायु नियामक कार्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। औद्योगिक और बुनियादी परियोजनाओं की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए शहरी क्षेत्रों के आसपास के वनीय क्षेत्र में प्रमुख कृषि भूमि का हस्तांतरण एक और मुख्य स्रोत है जो भूमि और पर्यावरण संकट बदत्तर करता है। इस प्रकार का वनीय बदलाव चीन व भारत में पिछले 50 वर्षों में देखने को मिलता है (Bongaarts 1998)। इसके बुरे परिणाम जानते हुए भी कृषि योग्य भूमि को लगातार खाली करके नयी आबादी और उद्योग स्थापित किये जा रहे हैं।

गहन कृषि: गहन कृषि में एक फसल के काटने के बाद तुरन्त दूसरी फसल को ऊगाया जाता है, भूमि को खाली नहीं छोड़ा जाता जिससे भूमि की मिट्टी में जैव कार्बन बहुत ज्यादा प्रभावित होता है। गहन कृषि में जैव कार्बन CO2 में परिवर्तित होकर भूमि से कार्बन की मात्रा को कम करता है (Lal 1998)। भूमि में कम होता जैव कार्बन भूमि की ऊर्वरक शक्ति और इसकी सरंचना को भी प्रभावित करता है।

उच्च उत्पादन वाली किस्में: मुट्ठीभर उच्च पैदावार वाली बीजों/फसलों ने उस क्षेत्र की पूर्ववर्ती फसलों के बीजों का विनाश किया है।  1960 के दसक से पहले भारत में लगभग 30000 तरह की धान की किस्मों को बोया जाता था लेकिन आज केवल 50 किस्मों पर ही भारतीय किसान निर्भर है (Katyal et al. 2016)। इस कदम ने नई आयातित या संवर्धित किस्मों को नये वातावरण में खतरे में डाल दिया है और इन नई किस्मों में अपरिचित कीट विकारों की विकास दर को बढ़ाया है। इन कीट विकारों के कारण फसलों में कीटनाशकों के उपयोग को बढ़ावा दिया है जिस कारण मित्र कीट व भूमि के स्वास्थ्य को प्रभावित किया है (Sidhu et al. 2010)।

उर्वरकों का बढ़ता उपयोग: उर्वरकों का हरित क्रान्ति में मुख्य योगदान रहा है फिर भी इन उर्वरकों को जलवायु परिवर्तन और गिरते भूमि के स्वारस्थ्य का जिम्मेदार कहा जाता है। बढ़ते उर्वरकों के उपयोग से भूमि में पोषक तत्त्वों की कमी, भूजल प्रदूषण, झीलों में बढ़ते अवांछनीय तत्त्व एवं ग्लोबल वार्मिंग का खतरा बढ़ा है (Katyal 2015)। इस गैर पूर्णतावादी उर्वरक प्रबंधन से भूमि की मिट्टी की गुणवत्ता में कमी आई है।

कीटनाशकों का बढ़ता उपयोग: गहन कृषि (Agricultural intensification) पद्धति हमेशा ही कीटों के जीवित रहने और उनके फसलों पर लगातार आक्रामकता के पक्ष में है। आधुनिक गहन कृषि में उपयुक्त उच्च उत्पादन वाली किस्में भी सुप्त कीटों को जगाने में सहायक हैं (Katyal et al. 2016)। हरित क्रान्ति के उदय होने से लेकर अब तक कीटनाशकों का उपयोग गुणात्त्मक रूप से बढ़ा है। इन कीटनाशकों का केवल 1.0 प्रतिशत ही कीटों को मारने में बहुत है बाकि बचा हुआ 99.0 प्रतिशत कीटनाशक भूमि में अवशोषित भूमि में मौजूद जीवाणुओं को मार देता है जिससे प्राकृतिक पोषक तत्व चक्र प्रभावित होता है। कीटनाशकों के उपयोग से भूमि के जीवों, जैविक पदार्थों, जल सरंक्षण, भूमि की उर्वरा शक्ति व वायु संचरण और खाद्य पदार्थों की हानि होती है (Katyal et al. 2016)।

सिंचाई: आधुनिक गहन कृषि में उपयुक्त उच्च उत्पादन वाली किस्मों में भरपूर पानी की आवश्यकता होती है। लेकिन, अपर्याप्त नहरी पानी के उपयोग के कारण भूमि में लवणता व जल भराव की समस्या भूमि के स्वास्थ्य को प्रभावित करती है। 75 देशों के शुष्क और अर्ध शुष्क क्षेत्रों में हर रोज लगभग 2000 हेक्टेयर सिंचित भूमि लवणों के कारण क्षारीय होकर बंजर हो रही है (Qadir et al. 2014)। विश्वभर में भूमिगत जल का उपयोग (दोहन) उसके पुनर्भरण (Recharge) से अधिक हो रहा है (Frankel 2015)। यदि जल दोहन को रोका या कम नहीं किया गया और पुनर्भरण करके भूमिगत जल को सरंक्षित नहीं किया गया तो ज्यादातर भूमि का स्वास्थ्य और ज्यादा ही खराब हो जाएगा।

जीवाश्म ईंधन ऊर्जा पर निर्भरता: आधुनिक कृषि अधिक-से-अधिक औद्योगिकता की ओर बढ़ रही है। मशीनों को शक्ति देने और कृषि-रसायनों के निर्माण के लिए जीवाश्म ईंधन (ऊर्जा) पर निर्भरता ने मानव के शारीरिक श्रम और पशुओं के उपयोग को ही बदल दिया है। भारत सहित अन्य हरित क्रान्ति देशों में जीवाश्म ईंधन ऊर्जा की मांग से न केवल तेजी बढ़ रही है बल्कि जीवाश्म ऊर्जा का उत्पादन व खर्च भी तेजी बढ़ रहा है। अत्यधिक अनुदान वाली बिजली की आपूर्ति जीवाश्म ईंधन के उपयोग का कारक है जैसे भारत में 25 प्रतिशत जीवाश्म ईंधन ऊर्जा अनुदान के रूप में वहीं अमेरीका में यह अनुदान 6 प्रतिशत तक है (Katyal et al. 2016)। भारत में कृषि को बिजली पर भारी सब्सिडी मुख्य मुद्दा नहीं है, लेकिन अनुदान के रूप में इसका दुरूपयोग भी बढ़ रहा है, यह गंभीर चिंता का विषय है। एक सर्वे के अनुसार भारत में लगभग 23 करोड़ बीजली/ईंधन चलित पम्प सेटों को 50 प्रतिशत अनुदान दिया जाता है जिनको वास्तव में 23 प्रतिशत ऊर्जा की आवश्यकता है (Jha, Pal and Singh 2012)। इसी प्रकार उर्वरक बनाने वाले कारखानों को केवल 30 प्रतिशत ईंधन की आवश्यकता है, जिनमें 50 प्रतिशत से भी ज्यादा ऊर्जा व्यर्थ हो जाती है। यही व्यर्थ ऊर्जा वातावरण में CO और CO2 छोड़ती है जिसका परिणाम ग्लोबल वार्मिंग है  व ये भूमि के स्वास्थ्य को भी प्रभावित करती हैं (Pimentel, Pimentel and Karpenstein-Machan 1999)।

आधुनिक गहन भूमि सुधार प्रबंधन एवं प्रसार: हरित क्रान्ति के बढ़ने में प्रौद्योगिकी हस्तांतरण प्रणाली ने महत्त्पूर्ण भूमिका निभाई है। लेकिन साल-दर-साल प्रौद्योगिकी हस्तांतरण प्रणाली अपनी मूल दिशा से दूर होती चली गई। इस प्रौद्योगिकी ने न केवल अन्धानुकरण उत्पादन बढ़ाने पर बल दिया बल्कि बढ़ते अनुदान के साथ-साथ उचित प्रबन्धन के लिए कम समय भी दिया। यह विधित है कि सस्ती लागत वाले उत्पाद का कुशल उपयोग हमेशा ही सवालों के घेरे में रहा है। इन सस्ते उत्पादों का हमेशा ही अति प्रयोग, दुरूपयोग और असंतुलित उपयोग ही रहता है। उद्दाहरण के तौर पर नाइट्रोजन उत्पाद सस्ते होने के कारण किसान इनका उपयोग आवश्यकता से अधिक करते हैं। इसी प्रकार मंहगे उत्पाद जैसे कि फास्फोरस व पोटाशियम का उपयोग कम करते हैं। इस प्रकार प्रबन्ध में किसान फसल के असंतुलित पोषण को बढ़ावा देते हैं और नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाशियम जैसे उर्वरकों के उपयोग में कुशलतापूर्वक उपयोग नहीं करते हैं। इसी प्रकार अनुदान के रूप में प्राप्त बिजली और सिंचाई के लिए पम्पसैट के माध्यम से ऊर्जा की बर्बादी होती है। खेती में उर्वरकों के ज्यादा उपयोग के लिए हस्तांतरण तकनीकें (Transfer technology) जैविक खाद डालने पर और ज्यादा बल देती हैं। इस प्रकार की कृषि पद्धतियों के कारण भूमि में बहु-पोषक तत्वों की कमी; लवणता का अतिक्रमण; भूमि में जैव कार्बन में गिरावट; भूमि, पानी और हवा का प्रदूषण; भूमि में सरंचनात्मक स्वास्थ्य और जैव विविधता में कमी; तथा जलवायु परिवर्तन का बढ़ना आदि देखने को मिल रहा है (Pimentel 1999)।

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