Home | श्रीमद्भगवद्गीता | श्रीमद्भगवद्गीता – दसवां अध्याय

Sections

Newsletter
Email:
Poll: Like Our New Look?
Do you like our new look & feel?

श्रीमद्भगवद्गीता – दसवां अध्याय

Font size: Decrease font Enlarge font

श्रीभगवान् बोले - हे महाबाहो! फिर भी मेरे परम रहस्य और प्रभावयुक्त वचन को सुन, जिसे मैं तुझ ‌‌‌अतिशय प्रेम रखने वाले के लिए हित की इच्छा से कहूँगा।

मेरी उत्पत्ति को अर्थात् लीला से प्रकट होने को न देवता लोग जानते हैं और न महर्षिजन ही जानते हैं, क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं का और महर्षियों का भी आदि कारण हूँ।

जो मुझ को अजन्मा अर्थात् वास्तव में जन्मरहित, अनादि और लोकों का महान् र्इश्वर तत्त्व से जानता है, वह मनुष्यों में ज्ञानवान् पुरूष सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है।

निश्चय करने की शक्ति, यथार्थ ज्ञान, असम्मूढ़ता, क्षमा, सत्य, इन्द्रियों का वश में करना, मन का निग्रह तथा सुख-दु:ख, उत्पत्ति-प्रलय और भय-अभय तथा अहिंसा, समता, सन्तोष, तप, दान, कीर्ति और अपकीर्ति - ऐसे प्राणियों के नाना प्रकार के भाव मुझ से ही होते हैं।

सात महर्षिजन, चार उन से भी पूर्व में होने वाले सनकादि तथा स्वायम्भुव आदि चौदह मनु - ये मुझ में भाव वाले सब-के सब मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए हैं, जिनकी संसार में यह सम्पूर्ण प्रजा है।

जो पुरूष मेरी इस परमैश्वर्यरूप विभूति को और योग शक्ति को तत्त्व से जानता है, वह निश्चल भक्तियोग से युक्त हो जाता है - इसमें कुछ भी संशय नहीं है।

मैं वासुदेव ही सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति का कारण हूँ और मुझ से ही सब जगत् चेष्टा करता है, इस प्रकार समझ कर श्रद्धा और भक्ति से युक्त बुद्धिमान् भक्तजन मुझ परमेश्वर को ही निरन्तर भजते हैं।

निरन्तर मुझ में मन लगाने वाले और मुझ में ही प्राणों को अर्पण करने वाले भक्तजन मेरी भक्ति की चर्चा के द्वारा आपस में मेरे प्रभाव को जानते हुए तथा गुण और प्रभाव सहित मेरा कथन करते हुए ही निरन्तर सन्तुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेव में ही निरन्तर रमण करते हैं।

उन निरन्तर मेरे ध्यान आदि में लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजने वाले भक्तों को मैं वह तत्त्व ज्ञान रूप योग देता हूँ, जिससे वे मुझ को ही प्राप्त होते हैं।

हे अर्जुन! उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए उनके अन्त:करण में स्थित हुआ मैं स्वयं ही उनके अज्ञानजनित अन्धकार को प्रकाशमय तत्त्व ज्ञान रूप् दीपक के द्वारा नष्ट कर देता हूँ।

अर्जुन बोले - आप परम ब्रह्म, परम धाम और परम पवित्र हैं, क्योंकि आपको सब ऋषिगण सनातन, दिव्य पुरूष एवं देवों का भी आदिदेव, अजन्मा और सर्वव्यापी कहते हैं। ‌‌‌वैसे ही देवर्षि व्यास भी कहते हैं और आप भी मेरे प्रति कहते हैं।

हे केशव! जो कुछ भी मेरे प्रति आप कहते हैं, इस सबको मैं सत्य मानता हूँ। हे भगवान्! आपके लीलामय स्वरूप को न तो दानव जानते हैं और न देवता ही।

हे भूतों को उत्पन्न करने वाले! हे भूतों के र्इश्वर! हे देवों के देव! हे पुरूषोंत्तम। आप स्वयं ही अपने से अपने को जानते हैं।

इसलिए आप ही उन अपनी दिव्य विभूतियों को सम्पूर्णता से कहने में समर्थ हैं, जिन विभूतियों के द्वारा आप इन सब लोकों को व्याप्त करके स्थित हैं।

हे योगेश्वर! मैं किस प्रकार निरन्तर चिनतन करता हुआ आपकों जानूँ और हे भगवन्! आप किन-किन भावों में मेरे द्वारा चिनतन करने योग्य हैं?

हे जनार्दन! अपनी योगशक्ति को और विभूति को फिर भी विस्तार पूर्वक कहिये, क्योंकि आपके अमृतमय वचनों को सुनते हुए मेरी तृप्ति नहीं होती अर्थात् सुनने की उत्कण्ठा बनी ही रहती है।

श्रीभगवान् बोले - हे कुरूश्रेष्ठ! अब मैं जो मेरी दिव्य विभूतियाँ हैं, उनको तेरे लिए प्रधानता से कहूँगा; क्योंकि मेरे विस्तार का अनत नहीं है।

हे अर्जुन! मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबकी आत्मा हूँ तथा सम्पूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अन्त भी मैं ही हूँ।

मैं अदिती के बारह पुत्रों में विष्णु और ज्योतियों में किरणों वाला सूर्य हूँ तथा मैं उनचास वायुदेवताओं का तेज और नक्षत्रों का अधिपति चन्द्रमा हूँ।

मै वेदों में सामवेद हूँ, देवों में इन्द्र हूँ, इन्द्रियों में मन हूँ और भूत पा्रणियों की चेतना अर्थात् जीवन शक्ति हूँ।

मैं एकादश रूद्रों में शंकर हूँ और यक्ष तथा राक्षसों में धन का स्वामी कुबेर हूँ। मै आठ वसुओं में अग्नि हूँ और शिखर वाले पर्वतों में सुमेरू पर्वत हूँ।

पुरोहितों मुखिया बृहस्पति मुझ को जान। हे पार्थ! मैं सेनापतियों में स्कन्द और जलाशयों में समुद्र हूँ।

मैं महर्षियों में भृगु और शब्दों में एक अक्षर अर्थात् ओंकार हूँ। सब प्रकार के यज्ञों में जपयज्ञ और स्थिर रहने वालों में हिमालयों हिमालय पहाड़ हूँ।

मैं सब वृक्षों में पीपल का वृक्ष, देवर्षियों में नारद मुनि, गन्धर्वों में चित्ररथ और सिद्धों में कपिल मुनि हूँ।

घोड़ों में अमृत के साथ उत्पन्न होने वाला उच्चै:श्रवा नामक घोड़ा, श्रेष्ठ हाथियों में ऐरावत नामक हाथी और मनुष्यों में राजा मुझ को जान।

मैं शस्त्रों में वज्र और गौओं में कामयेनु हूँ। शास्त्रोक्त रीति से सन्तान की सत्पत्तिज का हेतु कामदेव हूँ और सर्पों में सर्पराज वासुकि हूँ।

मैं नागों में शेषनाग और जलचरों में अधिपति वरूण देवता हूँ और पितरों में अर्यमा नामक पितर तथा शासन करने वालों में यमराज मैं हूँ।

मैं दैत्यों में प्रलाह्द और गण्ना करने वालों का समय हूँ तथा पशुओं में मृगराज सिंह और पक्षियों में मैं गरूड़ हूँ।

मैं पवित्र करने वालों में वायु और शस्त्रधारियों में श्रीराम हूँ तथा मछलियों में मगर हूँ और नदियों में श्रीभगीरथी गंगाजी हूँ।

हे अर्जुन! सृष्टियों का आदि और अन्त तथा मध्य भी मैं ही हूँ। मैं विद्याओं में अध्यात्मविद्या अर्थात् ब्रह्मविद्या और परस्पर विवाद करने वालों का तत्त्व-निर्णय के लिए किया जाने वाला वाद हूँ।

मैं अक्षरों में आकार हूँ और समासों में द्वन्द्व नामक समास हूँ। अक्षयकाल अर्थात्कालका भी महाकाल तथा सब ओर मुख वाला, विराट्स्वरूप, सबका धारण-पोषण करने वाला भी मैं ही हूँ।

मैं सबका नाश करने वाला ृत्यु और उत्पन्न होने वालों का उत्पत्ति हेतु हूँ तथा स्त्रियों में कीर्ति, श्री, वाक्, मेधा, धृति और क्षमा हूँ।

तथा गायन करने योग्य श्रुतियों में मैं बृहत्साम और छन्दों में गायत्री छनद हूँ तथा महीनों में मार्गशीर्ष और ऋतुओं में वसन्त मैं हूँ।

मैं छल करने वालों में जूआ और प्रभावशाली पुरूषों का प्रभाव हूँ। मैं जीतने वालों का विजय हूँ, निष्चय करने वालों का निश्चय और ‌‌‌सात्विक पुरूषों का ‌‌‌सात्विक भाव हूँ।

वृष्णि वंशियों में वासुदेव अर्थात् मैं स्वयं तेरा सखा, पाण्डवों में धनञजय अर्थात् तू, मुनियों में वेदव्यास और कवियों में शंकराचार्य कवि भी मैं ही हूँ।

मै दमन करने वालों का दण्ड अर्थात् दमन करने की शक्ति हूँ, जीतने की इच्छा वालों की नीति हूँ, गुप्त रखने योग्य भावों का रक्षक मौन हूँ और ज्ञानवानों का तत्त्व ज्ञान मैं ही हूँ।

और हे अर्जुन! जो सब भूतों की उत्पत्ति का कारण है, वह भी मैं ही हूँ; क्योंकि ऐसा चर और अचर कोर्इ भी भूत नहीं है, जो मुझ से रहित हो।

हे परन्तप! मेरी दिव्य विभूतियों का अन्त नहीं है, मैंने अपनी विभूतियों का यह विस्तार तो तेरे लिए एक देश से अर्थात् संक्षेप से कहा है।

जो-जो भी विभूतियुक्त अर्थात् ऐश्वर्ययुक्त, कान्तियुक्त और शक्तियुक्त वस्तु है, उस-उस को तू मेरे तेज के अंश की ही अभिव्यक्ति जान।

हे अर्जुन! इस बहुत जानने से तेरा क्या प्रयोजन है। मैं इस सम्पूर्ण जगत् को अपनी योगशक्ति के एक अंश मात्र से धारण करके स्थित हूँ।

Rate this article
0