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श्रीमद्भगवद्गीता – बारहवां अध्याय

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अर्जुन बोले - जो अनन्य प्रेमी भक्तजन पूर्वोक्त प्रकार से निरन्तर आपके भजन-ध्यान में लगे रह कर आप सगुण रूप परमेश्वर को और दूसरे जो केवल अविनाशी सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म को ही अतिश्रेष्ठ भाव से भजते हैं - उन दोनों प्रकार के उपासकों में अति उत्तम योगवेत्ता कौन हैं?

श्रीभगवान् बोले - मुझ में मन को एकाग्र करके निरन्तर मेरे भजन-ध्यान में लगे हुए जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त होकर मुझ सगुण रूप परमेश्वर को भजते हैं, वे मुझको ही योगियों में अति उत्तम योगी मान्य हैं।

परन्तु जो पुरूष इन्द्रियों के समुदाय को भली प्रकार वश में करके मन-बुद्धि से परे, सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा एक रस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी, सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को निरन्तर एकीभाव से ध्यान करते हुए भजते हु हैं, वे सम्पूर्ण भूतों के हित में रत और सब में समान भाव वाले योगी मुझ को ही प्राप्त होते हैं।

उन सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म में आसक्त चित्त वाले पुरूषों के साधन में परिश्रम विषेश है; क्योंकि देहाभिमानियों के द्वारा अव्यक्त विषयक गति दु:खपूर्वक प्राप्त की जाती है।

परन्तु जो मेरे परायण रहने वाले भक्तजन सम्पूर्ण कर्मों को मुझ में अर्पण करके मुझ सगुण रूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्ति योग से निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते हैं।

हे अर्जुन! उन मुझ में चित्त लगाने वाले प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्यु रूप संसार-समुद्र से उद्धार करने वाला होता है।

मुझ में मन को लगा और मुझ में ही बुद्धि को लगा; इसके उपरान्त तू मुझ में ही निवास करेगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।

यदि तू मन को मुझ में अचल स्थापन करने के लिए समर्थ नहीं है तो हे अर्जुन! अभ्यास रूप योग के द्वारा मुझ को प्राप्त होने के लिए इच्छा कर।

यदि तू उपर्युक्त अभ्यास में भी असमर्थ है तो केवल मेरे लिए कर्म करने के ही परायण हो जा। इस प्रकार मेरे नितित्त कर्मों को करता हुआ भी मेरी प्राप्ति रूप सिद्धि को ही प्राप्त होगा।

साधन को करने में भी तू असमर्थ है तो मन-बुद्धि आदि पर विजय प्राप्त करने वाला हो कर सब कर्मों के फल का त्याग कर।

मर्म को जान कर किये हुए अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है; ज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से भी सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है; क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शान्ति होती है।

जो पुरूष सब भूतों में द्वेश भाव से रहित, स्वार्थ रहित, सबका प्रेमी और हेतुरहित दयालु है तथा ममता से रहित अहंकार से रहित, सुख-दु:खों की प्राप्ति में सम और क्षमावान् है अर्थात् अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला है; तथा जो योगी संतुष्ट है, मन-इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किये हुए है और मुझ में दृढ़ निश्चय वाला है - वह मुझ में अर्पण किये हुए मन-बुद्धि वाला मेरा भक्त मुझ को प्रिय है।

जिससे कोर्इ भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता; तथा जो हर्ष, अमर्ष, भय और उद्वेगादि से रहित है - वह भक्त मुझको प्रिय है।

जो पुरूष आकांक्षा से रहित, बाहर-भीतर से शुद्ध चतुर, पक्षपात से रहित और दु:खों से छूटा हुआ है - वह सब आरम्भों का त्यागी मेरा भक्त मुझ को प्रिय है।

जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों का त्यागी है - वह भक्तियुक्त पुरूष मुझ को प्रिय है।

जो शत्रु-मित्र में और मान-अपमान में सम है तथा सर्दी-गर्मी, सुख-दु:खादि द्वन्द्वों में सम है और आसक्ति से रहित है।

जो निन्दा-स्तुति को समान समझने वाला, मननशील और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही सन्तुष्ट है और रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है - वह स्थिर बुद्धि भक्तिमान् पुरूष मुझ को प्रिय है।

परन्तु जो श्रद्धायुक्त पुरूष मेरे परायण होकर इस ऊपर कहे हुए धर्ममय अमृत को निष्काम प्रेमभाव से सेवन करते हैं, वे भक्त मुझ को अतिशय प्रिय हैं।

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