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भूमि अन्नपूर्णा है

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प्रकृति का पोषणशास्त्रमृदा और इसका निर्माणभूमि का गिरता स्वास्थ्यभूमि अन्नपूर्णा है; खाद्य चक्र; केशाकर्षक शक्तिचक्रवात; केंचुए - किसान के हलधरसूक्ष्म पर्यावरणजैविक व अजैविक घटक एवं पर्यायवरण के मध्य अन्त:क्रिया

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आधे से भी ज्यादा उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में भूमि पथरीली, नमकीनी  व अनुपजाऊ है (Singh et al. 1989) जिसको बढ़ती हुई जनसंख्या को भोजन आपूर्ति के लिए ऊपजाऊ बनाना अतिआवश्यक है।

क्या कभी आपने सोचा कि जगलों में सैकड़ों वर्षों से बड़े-बड़े पेड़ खड़े हैं, उन्हें कोई रासायनिक या कम्पोस्ट खाद नहीं देता, न कोई बीमारी से बचाने के लिए किसी कीटनाशक का छिड़काव करता है, फिर भी उनकी उत्पादकता में कोई कमी नहीं। ‌‌‌इसका अर्थ है कि धरती अन्नपूर्णा है और इसमें पोषणता बनी रहे, इसकी व्यवस्था प्रकृति करती रहती है, बशर्ते हम उसमें बाधक न बनें।

प्रकृति में मानव की उपस्थि के बिना, पेड़-पौधों की वृद्धि के लिए आवश्यक पोषक तत्वों की आपूर्ति अगर अपने-आप होती है तो इसका अर्थ है कि ईश्वर की खुद की स्वयं-विकासी, स्वयं-पोषी पूरी सवावलम्बी व्यवस्था है। इस स्वयं-पोषित स्वावलम्बी व्यवस्था में सूक्ष्म जीवाणुओं की मुख्य भूमिका होती है। सूक्ष्म जीवाणु बायोमास और पौधों की वृद्धि दर का आपस में पारस्परिक संबंध है (Singh et al. 1989) इसलिए कहा जा सकता है कि सूक्ष्म जैविक स्थिरीकरण पौधों के लिए पोषक तत्वों का मुख्य स्रोत है और पौष्टिक तत्त्वों के संरक्षण में सक्षम है।

1924 में डा. क्लार्क व डा. वाशिंगटन भारत में वर्मासेल (तेल कम्पनी) द्वारा अध्ययन करने आये, कि यहाँ धरती में कितनी गहराई तक कौन-कौन से तत्व, कितनी मात्रा में हैं (ZBNF)। इसके लिए उन्होने भूमि से प्रति 6-6 इन्च के नमूने 100 फिट गहराई तक लेकर प्रयोगशाला में परीक्षण ‌‌‌किये। उनके परीक्षण और अध्ययन का निष्कर्ष था, ‘‘धरती की जितनी गहराई में जायेंगे, उतनी मात्रा में सूक्ष्म तत्व बढ़ते जायेंगे”। अर्थात हमारी धरती माँ सूक्ष्म तत्वों का महासागर है और अन्नपूर्णा है।

मूलभूत विज्ञान के अनुसार भूमि की सतह से हम जैसे-जैसे भूमि की गहराई में जाते हैं, वैसे-वैसे खाद्य / पोषक तत्वों की मात्रा बढ़ती जाती है। इसका अर्थ है कि गहराई की भूमि पोषक तत्वों का महासागर है अर्थात अन्नपूर्णा है।

‌‌‌बार-बार उत्पादन लेने के बाद भूमि से सूक्ष्म तत्वों की कमी को पूरा करने के लिए भूमि में ‘केंचुए और सूक्ष्म जीवाणु’ दो स्वयंपोषी व्यवस्थाएं हैं। यही दो स्वयंपोषी व्यवस्थाएं ही भूमि की उरवर्कता बनाये रखती हैं। परन्तु आधुनिक व तथाकथित वैज्ञानिक कृषि पद्यति ने रासायनिक खादों व कीटनाशकों के प्रयोग द्वारा प्रकृति की दोनों व्यवस्थाओं को गम्भीर हानि पहुंचाई है, जिससे खेत में सू़क्ष्म जीवाणुओं के साथ ही केंचुए भी भूमि की गहारई में समाधिस्थ होकर कार्यविरत हो गये हैं। अतः कृषि की उत्पादकता को बनाये रखने के लिए हमें पुनः केंचुओं व सूक्ष्म जीवाणुओं को जानना व उनकी कार्य पद्धति को समझना आवश्यक है।

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